आतिशी मार्लेना अब दिल्ली की नई मुख्यमंत्री हैं। आम आदमी पार्टी में कई वरिष्ठ और फायरब्रांड नेताओं की मौजूदगी के बावजूद मुख्यमंत्री पद के लिए इस युवा नेत्री का चुनाव अरविंद केजरीवाल की भावी राजनीति को लेकर काफी कुछ कहता है। सबसे अहम बात है कि पांच महीने बाद ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव हैं। केजरीवाल के कुर्सी छोड़ने के बाद, अब हर कोई पांच महीने बाद के उस परिदृश्य की कल्पना करने में लगा हुआ है, जब दिल्ली में अगले पांच वर्षों के लिए सरकार बनेगी। इस सियासी ‘कल्पना’ को दिलचस्प बनाने के लिए लोगों के पास बिहार और झारखंड के उदाहरण तो हैं ही। बिहार में नीतीश कुमार ने पार्टी के वरिष्ठ नेता जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था, तो झारखंड में हेमंत सोरेन ने जेल जाने पर अपनी जगह चंपई सोरेन को सीएम की कुर्सी पर बैठाया था। लेकिन दोनों राज्यों में पार्टी के ये ‘वरिष्ठ और भरोसेमंद’ नेता सीएम की कुर्सी से उतरते ही बगावत पर उतर आए। सीएम की कुर्सी छिनते ही बरसों का भरोसा क्षण भर में टूट गया। रातोंरात सुर बदल गए।
अब सवाल यह है कि क्या दिल्ली में भी बिहार-झारखंड जैसे ‘खेला’ हो सकता है? क्या पांच महीने बाद आतिशी मर्लेना भी जीतन राम मांझी और चंपई सोरेन की फेहरिस्त में शामिल हो सकती हैं? जीतन राम मांझी जहां अपनी पार्टी बनाने के बाद एनडीए के हो गए, वहीं चंपई सोरेन तो सीधे ही बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। हालांकि बीजेपी भी चाहती तो यही होगी कि चंपई बीजेपी में शामिल होने के साथ-साथ जेएमएम के कुछ विधायक भी तोड़कर ले लाएं, लेकिन चंपई ऐसा कर नहीं पाए।
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल कई बार बीजेपी पर आरोप लगा चुके हैं कि उसने आम आदमी पार्टी को तोड़ने की कोशिश की। उनके आरोपों में कितनी सच्चाई है ये तो वह खुद जानते होंगे या फिर बीजेपी आलाकमान, लेकिन दिल्ली बीजेपी के नेता आम आदमी पार्टी के इक्का-दुक्का विधायक और पार्षद अपनी पार्टी में शामिल करा लेने से आगे नहीं बढ़ पाए। हाल ही में हरियाणा बीजेपी ने दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार में मंत्री रह चुके संदीप कुमार को अपनी पार्टी में शामिल कराया था, लेकिन संदीप कुमार से जुड़े सीडी विवाद के कारण बीजेपी की इतनी फजीहत हुई कि कुछ घंटों में ही पार्टी को उन्हे बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा। उन्हीं आरोपों की वजह से संदीप कुमार को 2016 में आम आदमी पार्टी से भी निलंबित कर दिया गया था।
बहरहाल, पार्टियों में तोड़फोड़ और नेताओं का पार्टी बदलना राजनीति में कोई नई बात नहीं है। कई राज्यों में तो बीजेपी तोड़फोड़ के जरिये अपनी सरकार तक बनाने में कामयाब रही है। लेकिन दिल्ली में उसकी कोशिशें कामयाब नहीं हो पाई हैं। दिल्ली की आबकारी नीति को लेकर आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह, दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जेल गए और बाहर आए। सतेंदर जैन तो अब भी जेल में हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी में टूट-फूट का सपना देखने वालों को अभी तक मायूसी ही हाथ लगी है।
हालांकि राजनीति में उम्मीदें कभी खत्म नहीं होतीं। राजनीति के शतरंज का कौन सा मोहरा कब टेढ़ी चाल चलने लगे, यह किसी को पता नहीं होता। इसीलिए आम आदमी पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं की गतिविधियों पर बीजेपी की निगाहें हमेशा टिकी रहती हैं। पता नहीं कब कौन सा ‘मोहरा’ चाल बदल दे और सत्ता की चाबी उनके हाथ आ जाए ! लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी बन चुके अरविंद केजरीवाल भी इस सबसे अनजान तो नहीं होंगे! शायद इसीलिए उन्होंने पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर मुख्यमंत्री पद के लिए अपेक्षाकृत कम अनुभवी आतिशी पर भरोसा जताया। वैसे भरोसा तो नीतीश को अपने जीतनराम मांझी पर भी था और हेमंत सोरेन को भी अपने चंपई सोरेन पर था। लेकिन जब कुर्सी की बात आई तो बरसों पुराना भरोसा धराशायी होते देर नहीं लगी। फिलहाल दिल्ली में भी अगले पांच महीनों तक सबकी निगाहें उसी ‘भरोसे’ पर टिकी रहने वाली हैं।
क्या पता बिहार-झारखंड की कहानी दिल्ली में भी रिपीट हो जाए! क्योंकि किरदार भी वैसे ही हैं और स्क्रिप्ट भी। फर्क सिर्फ इतना है कि नीतीश और हेमंत सोरेन ने अपने वरिष्ठ नेताओं पर भरोसा किया था और केजरीवाल ने युवा नेता पर दांव लगाया है। आतिशी सिर्फ पांच महीने की मुख्यमंत्री हैं। बतौर सीएम, उनकी इस शॉर्ट स्टोरी का क्लाइमेक्स क्या होगा यह तो अब पांच महीने बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले पांच महीने दिल्ली की राजनीति में बेहद उतार-चढ़ाव और दांव-पेच से भरपूर रहने वाले हैं। राजनीतिक उठा-पटक ज्यादा हुई तो दिल्ली वालों को समय से पहले चुनाव या फिर राष्ट्रपति शासन का सामना भी करना पड़ सकता है। वहीं, इस्तीफे से केजरीवाल को एक फायदा यह हो सकता है कि वो अब आम आदमी पार्टी को अन्य राज्यों में मजबूत बनाने और हरियाणा विधानसभा चुनाव पर पूरी तरफ फोकस कर सकते हैं।