मुझे याद है जब विराट कोहली ने 2011 में वेस्ट इंडिज के खिलाफ अपना पहला टेस्ट मैच खेला था (शायद इसलिए क्योंकि उस मैच की पहली पारी में हरभजन सिंह की वो शानदार 70 रन की पारी आई थी.) इस मैच में विराट ने दो पारियों में केवल 4 और 15 रन ही बनाए थे.

अब जब विराट कोहली ने 14 साल बाद इस फॉर्मेट को अलविदा बोला है तो उन्होंने 123 टेस्ट मैच में 46.85 के औसत से 9230 रन बनाए हैं. इसमें 30 शतक और 50 अर्धशतक हैं. विराट कोहली का सबसे बड़ा आलोचक भी यह आंकड़े देखकर अदब से झुकेगा और सलाम करेगा. अगर वो ना कर सके तो इसका एक ही मतलब होगा- उसकी रीढ़ की हड्डी खराब है और उसके लिए शारीरिक रूप से ऐसा करना संभव नहीं है.
मेरे जेहन में एक सवाल हमेशा आया कि कौन सी बात विराट को सबसे अलग बनाती थी. स्किल के मामले में कोई उनसे आगे भले न हो लेकिन आसपास होने के बावजूद मेरी नजर में उनके लीग का क्यों नहीं दिखा. शायद इसकी सबसे बड़ी वजह उनका अंदाज था और कैसे उम्र के साथ हमने उनमें मैच्योरिटी आती देखी. ऐसा लग रहा था कि कोहली के साथ हम बड़े हो रहे हैं और उनको देखकर मैच्योर हो रहे हैं.

प्वाइंट और स्लीप में खड़ा जूनियर प्लेयर के रूप में ‘चीकू’ टीम में वो एग्रेशन लेकर आता था. वो मस्ती लेकर आता था. वक्त गुजरा और वो कैप्टन बना तो मैच का कंट्रोल हर तरह से उसके हाथ में दिखता था. टीम के बाकि जूनियर प्लेयर्स के लिए किसी गार्डियन की तरह, कोई उन्हें स्लेज करता था तो विराट पूरे मैच उसे इसबात का एहसास करा देते थे. और फिर आया विराट का अपनी शादी के बाद वाला फेज. हर मामले में मैच्योर दिखते विराट, मैच खराब जाए या शानदार, वो कॉन्फिडेंस से भरा शांत विराट दिखा. शतक के बाद अपने परिवार को पारी समर्पित करने वाला विराट.

इन 14 सालों में हमने विराट का हर फेज देखा. चीकू से महान विराट बनते देखा. हर फेज से उन्होंने भारत के क्रिकेट कैनवास पर वह पेंटिंग उकेरी जो हर मायने में उन्हें आज के दौर का सबसे बड़ा खिलाड़ी बनाती है, वह भी बहुत बड़े अंतर के साथ.
आज के बाद इंटरनेशनल क्रिकेट में जब भी भारत का मैच होगा, बॉल खुद मिस किया करेंगी विराट का वो कवर ड्राइव. लाल गेंद, सफेद जर्सी में विराट और बाहर स्विंग करती गेंद पर उनका सिग्नेचर कवर ड्राइव… सुखद, सुखद और बस सुखद.